इस पृथ्वी पर दो बड़ी शक्तियां ईश्वर vs मानव : ---
(वैज्ञानिक दृष्टिकोण से एक गहन चिंतन)
मानव सभ्यता के इतिहास में दो शक्तियों की चर्चा हमेशा होती रही है—एक तरफ ईश्वर, दूसरी तरफ मानव।
धार्मिक परंपराओं ने सदियों तक मानव को यह मानने पर मजबूर किया कि—
“तुम्हारा अस्तित्व ईश्वर से है”
“गरीबी-अमीरी ईश्वर की इच्छा है”
“तुम्हारे साथ जो भी हो रहा है वह ईश्वर की मर्जी है”
इसी विश्वास ने मानव को सोचने-समझने, विश्लेषण करने और अपनी स्थिति बदलने की प्रेरणा से दूर कर दिया।
‘ईश्वर की इच्छा’ की अवधारणा ने मानव को निकम्मा बना दिया है, क्योंकि जब कोई व्यक्ति अपने सभी अच्छे-बुरे अनुभव किसी अदृश्य शक्ति पर छोड़ देता है, तो उसके अंदर परिवर्तन की आग बुझ जाती है।
अगर ईश्वर बीच में न हो…
तो मानव को यह सोचना ही पड़ेगा—
मैं गरीब क्यों हूँ?
दूसरा अमीर क्यों है?
मेरे साथ रोज़ जो अच्छा-बुरा होता है, वह क्यों होता है?
मैं अपनी परिस्थिति कैसे बदल सकता हूँ?
लेकिन ईश्वर पर छोड़ देने की आदत उसे इन सवालों से दूर कर देती है। यहां ठीक वही बात लागू होती है—
“एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं।
दो सर्वोच्च शक्तियां साथ नहीं चल सकतीं।”
या तो ईश्वर को सर्वोपरि मानो, या मानव को सक्षम।
दोनों एक साथ अपना - अपना प्रभुत्व नहीं रख सकते।
वैज्ञानिक उदाहरण जो इस विचार को मजबूती देते हैं :-
1️⃣ न्यूटन का गति का नियम — कारण और परिणाम (Cause & Effect):--
विज्ञान कहता है कि हर घटना का एक कारण होता है।
न्यूटन के गति के सिद्धांत के अनुसार, बिना कारण कोई परिणाम नहीं आता।
इसलिए किसी व्यक्ति का सफलता या असफलता पाना “ईश्वर की इच्छा” नहीं, बल्कि कारणों का परिणाम है—
--मेहनत
--अवसर
--सामाजिक संरचना
--शिक्षा
--निर्णय
--वातावरण
यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण मानव को निष्क्रिय नहीं, बल्कि जिम्मेदार बनाता है।
2️⃣ डार्विन का प्राकृतिक चयन (Natural Selection):--
डार्विन ने कहा—
“जो अनुकूलन करता है, वही आगे बढ़ता है।”
यह सिद्धांत ईश्वर के हस्तक्षेप को वैज्ञानिक रूप से खारिज करता है।
यदि विकास ईश्वर की इच्छा से होता, तो फिर जानवरों, पक्षियों, मनुष्यों में लगातार बदलाव क्यों आते?
विकास का सिद्धांत एक बात स्पष्ट कहता है—
मानव अपनी परिस्थितियों को बदल सकता है, और बदलता आया है।
3️⃣ आइंस्टीन का प्रसिद्ध कथन:--
आइंस्टीन ने कहा था—
“ईश्वर पासों का खेल नहीं खेलता।”
(अर्थात ब्रह्मांड दैवी चमत्कारों से नहीं,
बल्कि वैज्ञानिक नियमों से चलता है।)
इस दृष्टिकोण से देखें तो मानव को मिली बुद्धि, विवेक और निर्णय क्षमता ही शक्ति है,
और इन्हें छोड़कर किसी अलौकिक इच्छा पर निर्भर रहना मानव क्षमता का अपमान है।
4️⃣ मनोविज्ञान का ‘External Locus of Control’ सिद्धांत,:--
मॉडर्न मनोविज्ञान में कहा गया है कि जो लोग—
अपनी समस्याओं का कारण बाहर तलाशते हैं (ईश्वर, भाग्य, किस्मत)
वह जीवन में सफल नहीं हो पाते।
इसके विपरीत,
‘Internal Locus of Control’
यानी जो व्यक्ति अपने जीवन का नियंत्रण खुद को मानता है—
वही परिवर्तन लाता है, निर्णय लेता है और आगे बढ़ता है।
ईश्वर पर निर्भरता क्यों मानव को कमजोर बनाती है?
--क्योंकि वह सोचता है—
“जो होना होगा, वह हो जाएगा।”
“सभी काम भगवान कर रहे हैं।”
“मेरी मेहनत से क्या होगा?”
यह विचार मनुष्य को भाग्यवाद की जंजीरों में बांध देता है।
यदि मानव ईश्वर की अवधारणा को बीच से हटा दे तो—
वह अपनी गरीबी, संघर्ष, दर्द, असमानता और हर दर्दनाक घटना का तार्किक कारण खोजेगा और समाधान भी बनाएगा।
इतिहास भी यही साबित करता है - कई महान वैज्ञानिक, सामाजिक क्रांतिकारी और विचारकों ने मानव प्रगति के रास्ते में अंधविश्वास और ईश्वर का अतिशय हस्तक्षेप को सबसे बड़ी बाधा बताया है—
चार्ल्स डार्विन, कार्ल मार्क्स,
स्टीफ़न हॉकिंग, जे.के. कृष्णमूर्ति
विवेकानंद (ईश्वर नहीं, 'मानव की शक्ति' पर अधिक ज़ोर),
डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर (भाग्यवाद को सामाजिक गुलामी बताते थे)
यह वही क्षण है जब मनुष्य निकम्मापन छोड़कर एक जिम्मेदार जीव में बदलता है।
दो तलवारें एक म्यान में नहीं रह सकतीं:-
जिस प्रकार एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं, उसी प्रकार सर्वशक्तिमान ईश्वर और दायित्व-युक्त मानव दोनों साथ-साथ पूर्ण रूप से सक्रिय नहीं हो सकते।
या तो-
मनुष्य यह मान ले कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है, और स्वयं कुछ करने की आवश्यकता नहीं है।
या फिर-
मनुष्य यह मान ले कि उसका भविष्य वही लिखता है, और ईश्वर की अवधारणा उसके निर्णयों में हस्तक्षेप नहीं करती।
मानव की प्रगति उन्हीं समाजों में अधिक हुई जहाँ ईश्वर के भय को कम करके विज्ञान, तर्क और अनुसंधान को प्राथमिकता दी गई।
महापुरुषों और वैज्ञानिकों की चिंता:--
इतिहास में अनेक वैज्ञानिकों, दार्शनिकों और सामाजिक सुधारकों ने यह चिंता जताई है कि ईश्वर की अवधारणा को केंद्र में रख देने से मानव का विवेक कमजोर हो जाता है—
कार्ल मार्क्स ने धर्म को “जनता की अफ़ीम” कहा।
नीत्शे ने कहा — “ईश्वर मर चुका है” — और उसके साथ मनुष्य की बौद्धिक गुलामी भी मरनी चाहिए।
डार्विन ने कहा कि जीवन प्राकृतिक चयन का परिणाम है, किसी अलौकिक शक्ति का नहीं।
स्टीफन हॉकिंग ने कहा — ब्रह्मांड किसी ईश्वर की इच्छा से नहीं, भौतिक नियमों से चलता है।
इन सभी का सार यही था कि
जब तक मनुष्य अपने जीवन की जिम्मेदारी स्वयं नहीं लेगा, तब तक वह आधा-अधूरा प्राणी बना रहेगा।
ईश्वर का हटना = मनुष्य का जागरण :--
यह लेख ईश्वर को अपमानित करने के लिए नहीं, बल्कि उस विचार को चुनौती देने के लिए है जिसने मानव को अल्प-शक्ति, अल्प-ज्ञान, और अल्प-साहस वाला बना दिया है।
यदि मनुष्य अपने जीवन से "ईश्वर ने ऐसा चाहा होगा" वाली सोच हटा दे तो—
तो वह स्वयं अपने निर्णयों का मालिक बनेगा।
गलतियों के लिए जिम्मेदारी स्वीकार करेगा।
मेहनत और बुद्धिमत्ता से अपना भविष्य बनाएगा।
समाज की असमानताओं पर सवाल उठाएगा।
विज्ञान और तर्क के आधार पर समाधान ढूंढेगा।
और सबसे महत्वपूर्ण—
वह निकम्मा नहीं रहेगा, बल्कि संपूर्ण मनुष्य बन जाएगा।
मनुष्य की वास्तविक शक्ति — उसकी समझ :--
ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं, यह एक दार्शनिक प्रश्न है।
लेकिन यह स्पष्ट है कि
मानव की सबसे बड़ी शक्ति उसका अपना विचार, बुद्धि और संघर्ष है।
यदि मानव ईश्वर के भरोसे न रहे,
तो मानव अपनी नियति स्वयं लिख सकता है —
और यही मानवता की सबसे बड़ी विजय होगी।
मेरी भी यही चिंता है…
मानव को निकम्मेपन, भय और असहायता से बचाना है तो
मानव की शक्ति को सर्वोच्च मानना पड़ेगा।
जब तक वह हर घटना का श्रेय—
“ईश्वर की इच्छा”
को देता रहेगा,
वह अपने जीवन की बागडोर कभी अपने हाथ में नहीं ले पाएगा।
संक्षेप में निष्कर्ष :--
ईश्वर की अवधारणा ने मानव की जिज्ञासा, प्रश्न करने की क्षमता, और संघर्ष करने की इच्छा को कमजोर किया है।
यदि मानव वास्तव में स्वतंत्र और सक्षम बनना चाहता है,
तो उसे अपने जीवन का नियंत्रण स्वयं अपने हाथ में लेना होगा—
विज्ञान, तर्क और आत्मचिंतन के आधार पर।
मानव ही महामानव है — इसका वैज्ञानिक प्रमाण :--
इतिहास का सबसे बड़ा सत्य यह है कि मानव यदि किसी शक्ति पर विश्वास कर सकता है, तो वह शक्ति स्वयं मानव ही है।
मनुष्य सदियों से ऐसी अदृश्य शक्ति के पीछे भागता रहा है जिसे —
ना किसी ने देखा,
ना किसी ने जाना,
ना किसी ने मापा,
और ना ही जिसके कोई वैज्ञानिक प्रमाण मिले।
लेकिन इसी बीच एक दृश्य, प्रमाणित, बुद्धिमान, खोज करने वाला, नियम बनाने वाला, दुनिया बदलने वाला प्राणी इस पृथ्वी पर मौजूद है —
और वह है मनुष्य स्वयं।
1️⃣ मानव की वैज्ञानिक उपलब्धियाँ यह साबित करती हैं कि मनुष्य ही महामानव है :--
--चंद्रमा तक पहुँचना।
--मंगल ग्रह पर मिशन भेजना।
--पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है — इसका पता लगाना।
--आकाश में उड़ते हवाई जहाज।
--समुद्र और भूमि पर दौड़ते जहाज, ट्रेनें और वाहन।
--बिजली, कंप्यूटर, इंटरनेट, मोबाइल।
--रोशनी, ताप, ऊर्जा और पदार्थ के नियमों की खोज।
-- डीएनए, जीन और मानव शरीर के रहस्यों को समझना।
-- चिकित्सा, विज्ञान और अंतरिक्ष विज्ञान में क्रांतिकारी खोजें।
इन सबमें किसी अदृश्य ईश्वर का एक प्रतिशत योगदान भी नहीं है।
यह सब मनुष्य ने स्वयं किया, अपनी—
बुद्धि, जिज्ञासा, शोध, मेहनत, संकल्प और ज्ञान के बल पर किया।
यदि यह सब मानव कर सकता है,
तो वह किसी “दूसरी शक्ति” का दास नहीं,
बल्कि स्वयं सर्वोच्च शक्ति — महामानव है।
2️⃣ वैज्ञानिक दृष्टिकोण :--
यदि कोई शक्ति मनुष्य को दिशा दे रही होती, तो वैज्ञानिक विकास समान होता।
लेकिन इतिहास गवाही देता है—
विकास उन समाजों में तेज़ हुआ जहाँ मनुष्य ने ईश्वर की अवधारणा को कम महत्व दिया और विज्ञान को आगे रखा। जैसे -- यूरोप का पुनर्जागरण, औद्योगिक क्रांति, आधुनिक विज्ञान सभी तब फले-फूले, जब मनुष्य ने कहा— “सोचना मेरा काम है, चमत्कारों का नहीं।”
यदि ईश्वर सब कुछ कर रहा होता —तो बिजली, इंटरनेट, एरोप्लेन, चंद्रयान, जेनेटिक इंजीनियरिंग — हर जगह बराबर होते!
लेकिन ऐसा नहीं है।
क्योंकि विकास मनुष्य की बुद्धि का परिणाम है, किसी दैवी शक्ति का नहीं।
3️⃣ यह भ्रम कि ‘ईश्वर ने बनाया’ — मानव को कमजोर करता रहा है :-- तथ्य यह है कि—
--भोजन मनुष्य उगाता है। घर मनुष्य बनाता है। दवा मनुष्य बनाता है। हवा में उड़ने की तकनीक मनुष्य बनाता है। ब्रह्मांड का अध्ययन मनुष्य करता है। समाज और कानून मनुष्य बनाता है।
फिर यह कहना कि --
“मेरी गरीबी-अमीरी ईश्वर की इच्छा है” मानव बुद्धि का सबसे बड़ा अपमान है।
मनुष्य सदियों से अदृश्य शक्ति के भरोसे बैठा रहा,
जबकि दृश्य शक्ति — मनुष्य की अपनी बुद्धि — सदा उसके भीतर थी।
4️⃣ मनुष्य ही ईश्वर है — क्योंकि उसने “चमत्कार” स्वयं बनाए।
यदि ईश्वर की पहचान चमत्कार है, तो मनुष्य के वैज्ञानिक शोध क्या हैं? वह भी चमत्कार ही हैं—
लेकिन मानव निर्मित चमत्कार।
हृदय प्रत्यारोपण, अंतरिक्ष यात्रा,
रोबोटिक्स, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, ऊर्जा उत्पादन, परमाणु विज्ञान यह सब मनुष्य की क्षमता के प्रमाण हैं।
ऐसी शक्ति जो अपनी दुनिया बदल दे —
वह स्वयं में महामानव है।
5️⃣ (मूल विचार का उन्नत निष्कर्ष —
इसलिए मेरा स्पष्ट और वैज्ञानिक मानना है:
मनुष्य को किसी दूसरे ईश्वर को मानने की आवश्यकता नहीं है।
जो उपलब्धियां हम देखते हैं —
वह मनुष्य की बुद्धि, साहस और परिश्रम के कारण हैं।
किसी अदृश्य शक्ति ने पहिया नहीं बनाया,
हवाई जहाज नहीं बनाया,
रॉकेट नहीं बनाया,
दवाइयाँ नहीं बनाईं,
समाज नहीं बनाया —
यह सब मनुष्य ने स्वयं किया है।
इसलिए—
**मनुष्य ही महामानव है।
और इसी कारण मनुष्य स्वयं ही ईश्वर है।**
मानव को भ्रमित कर दिया गया है कि उसकी शक्ति बाहर है।
सत्य यह है कि शक्ति भीतर है — मानव के विवेक, बुद्धि और तर्क में।
जब मानव अपनी आंतरिक शक्ति को पहचान लेगा,
तो वह केवल सभ्यता का निर्माता नहीं,
बल्कि अपने भविष्य का ईश्वर बन जाएगा।
मानव और नारी की उत्पत्ति — विज्ञान का स्पष्ट प्रमाण कि यह सब मानव ज्ञान का परिणाम है:--
ईश्वरवादी विचारधाराएँ कहती हैं कि --
“मनुष्य ईश्वर ने बनाया”
“नारी ईश्वर ने बनाई”
लेकिन विज्ञान इसके ठीक उलट एक प्रमाणित सत्य प्रस्तुत करता है—
मनुष्य और नारी की उत्पत्ति किसी दैवी कल्पना से नहीं, बल्कि जैविक-विकास (Biological Evolution) और प्राकृतिक चयन (Natural Selection) की करोड़ों वर्षों की प्रक्रिया से हुई है।
डार्विन, लैमार्क, मेंडल, आधुनिक आनुवंशिकी (Genetics) और DNA विज्ञान यह सिद्ध करते हैं कि— जीवन लाखों वर्षों के क्रमिक विकास से बना, प्रजातियाँ बदलती रहीं,
मानव प्रजाति का विकास भी क्रमिक है, नारी और पुरुष दोनों का जैविक विकास एक ही वैज्ञानिक प्रक्रिया का हिस्सा है,
इस विकास प्रक्रिया में किसी अदृश्य ईश्वर का कोई हस्तक्षेप नहीं पाया गया है।
न ही कोई वैज्ञानिक प्रमाण।
मनुष्य और नारी की उत्पत्ति के हर चरण की व्याख्या —
अंडाणु, शुक्राणु, गर्भाधान, कोशिका विभाजन, DNA संरचना, आनुवंशिक कोड
—इन सभी की खोज मनुष्य ने स्वयं की है।
यह खोज किसी मंदिर या धार्मिक ग्रंथ से नहीं मिली,
बल्कि मानव की बुद्धि और वैज्ञानिक अनुसंधान का परिणाम है।
जब मनुष्य बीमार होता है — तब कौन काम आता है?:--
विज्ञान या ईश्वर?**
इस प्रश्न का उत्तर पूरी मानव सभ्यता हर दिन देती है—
--बुखार आता है → मनुष्य अस्पताल जाता है।
--दिल की बीमारी होती है → डॉक्टर इलाज करता है।
--ऑपरेशन होता है → सर्जन करता है।
--दवा बनती है → मानव वैज्ञानिक बनाते हैं।
-- एक्स-रे, MRI, CT Scan → यह सब विज्ञान की देन है।
कोई मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारा उस समय पहला इलाज नहीं करता।
अंततः इलाज मनुष्य ही करता है।
अगर मनुष्य को बचाने वाली शक्ति मंदिरों, मस्जिदों गुरुद्वारों और चर्चों में होती,
तो दुनिया भर में अस्पतालों और मेडिकल साइंस की जरूरत ही नहीं होती।
यहाँ सबसे बड़ा वैज्ञानिक सत्य यह है—
**मनुष्य की जान, मनुष्य द्वारा निर्मित विज्ञान बचाता है—
किसी अदृश्य शक्ति द्वारा नहीं।**
मनुष्य की ऊर्जा ही उसकी असली जीवन शक्ति है:--
जब कोई व्यक्ति बीमार पड़ता है, तो डॉक्टर दवा देता है —लेकिन ठीक शरीर स्वयं होता है, क्योंकि मानव शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता (Immune System) वह अद्भुत ऊर्जा है जो मनुष्य को जीवित रखती है।
यह ऊर्जा --
किसी मंदिर में नहीं मिलती।
किसी मस्जिद में नहीं मिलती। किसी गुरुद्वारा में नहीं मिलती। किसी चर्च में नहीं मिलती।
किसी पूजा, पाठ या आराधना से नहीं बनती।
किसी ईश्वर से नहीं आती
बल्कि यह प्रकृति द्वारा विकसित मानव शरीर की वैज्ञानिक संरचना है।
मनुष्य का शरीर स्वयं यह सिद्ध करता है—
मनुष्य की शक्ति — स्वयं मानव के भीतर है, न कि किसी अदृश्य, अप्रमाणित ईश्वर में।
**मानव को यह समझना ही होगा:--
सृजनकर्ता मनुष्य है, न कि कोई अदृश्य शक्ति**
यदि ईश्वर ने सब बनाया होता,
तो वैज्ञानिक खोजें मनुष्य क्यों करता?
--बच्चे को जन्म नारी देती है।
--बचपन, शिक्षा, समझ — सब मनुष्य सिखाता है।
--समाज, कानून, व्यवस्था — मनुष्य बनाता है।
-- जीवन का हर ज्ञान — मनुष्य उत्पन्न करता है।
इसलिए यह कहना कि—
“मनुष्य ईश्वर की रचना है”
विज्ञान और तर्क दोनों के विरुद्ध है।
सत्य यह है—
*मनुष्य ने स्वयं जीवन के सभी रहस्यों की खोज की है।
नारी की उत्पत्ति, मानव शरीर, DNA, जीवन—सब वैज्ञानिक ज्ञान का परिणाम है।**
अंतिम वैज्ञानिक निष्कर्ष :--
किसी अदृश्य शक्ति ने
ना मानव को बनाया,
ना नारी को,
ना जीवन को,
ना समाज को,
ना विज्ञान को।
इन सबके पीछे एक ही शक्ति काम कर रही है —
मनुष्य की बुद्धि और मनुष्य का विज्ञान।
इसलिए—
**मनुष्य ही महामानव है।
मनुष्य ही सृजनकर्ता है।
और मनुष्य ही वह शक्ति है जिसे आज तक “ईश्वर” कहा गया।**
लेखक - ब्रजलाल लोधी एडवोकेट सामाजिक चिंतक। प्रदेश अध्यक्ष - अखिल भारतीय लोधी लोधा राजपूत महासभा उत्तर प्रदेश
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