*भारत में उभरती विचारधाराएं:*
*हिंदूवाद बनाम अंबेडकरवाद के बीच पिसता हुआ पिछड़ा वर्ग :-*
भारत जैसे विविधता पूर्ण लोकतांत्रिक देश में सदियों से विचारधाराओं की टकराहट और अस्तित्व का सवाल दोनों ही देखने को मिले हैं। वर्तमान भारत दो प्रमुख सामाजिक-राजनीतिक विचारधाराओं के संघर्ष के दौर से गुजर रहा है — *हिंदूवादी विचारधारा और अंबेडकरवादी विचारधारा।* इस संघर्ष में सबसे अधिक उपेक्षित और भ्रमित तबका पिछड़ा वर्ग (OBC) है, जिसकी कोई स्वतंत्र विचारधारा नहीं बन पाई है, जो इन दोनों धाराओं के बीच में पिसता नजर आ रहा है।
*हिंदूवादी विचारधारा का उदय और उद्देश्य:-*
हिंदूवादी विचारधारा को सबसे संगठित रूप से प्रस्तुत करने वाला संगठन है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) और उसकी राजनीतिक शाखा भारतीय जनता पार्टी (BJP)। यह विचारधारा भारत को एक "*हिंदू राष्ट्र*" के रूप में देखना चाहती है, *जहाँ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, गौरवपूर्ण अतीत, रामराज्य और वेद-पुराणों पर आधारित जीवन शैली को बढ़ावा दिया जाए।*
हालांकि, इसके छुपे हुए सामाजिक ढांचे पर ध्यान दें तो यह स्पष्ट होता है कि इसमें मनु आधारित वर्चस्व की एक परंपरा छिपी हुई है। वर्ण व्यवस्था को अप्रत्यक्ष रूप से पुनर्स्थापित करने की चेष्टा है, यद्यपि पिछड़ी जातियों और अनुसूचित जातियों को राजनीतिक रूप से साथ लाने का प्रयास किया जा रहा है, परंतु सामाजिक समानता और सांस्कृतिक स्वीकृति अब भी अधूरी है।
*अंबेडकरवादी विचारधारा:-*
*डॉ. भीमराव अंबेडकर की विचारधारा समता, बंधुत्व, स्वतंत्रता और न्याय पर आधारित है। यह एक ऐसी धारा है जो हिंदू धर्म की वर्ण व्यवस्था को चुनौती देती है और दलित-बहुजन आंदोलन का आधार बनती है।* अंबेडकरवाद किसी धर्म विशेष के बजाय *मानवतावाद और संवैधानिक मूल्यों पर आधारित सामाजिक क्रांति की वकालत करता है। इसमें शिक्षा, आर्थिक आत्मनिर्भरता और राजनीतिक चेतना को केंद्र में रखा गया है।* आज बहुजन समाज पार्टी (BSP), कुछ अंबेडकरवादी संगठन और वामपंथी समूह इसे अपने-अपने ढंग से आगे बढ़ा रहे हैं।
*दो ध्रुवों के बीच फंसा हुआ पिछड़ा समाज:-*
पिछड़ा वर्ग संख्या में देश की सबसे बड़ी जनसंख्या है। शिक्षा, व्यापार, नौकरी, प्रशासन और राजनीति में इसकी भागीदारी बढ़ रही है, फिर भी यह विचारधारा और पहचान के संकट से जूझ रहा है।
*पिछड़े वर्ग के सामने तीन मुख्य परिस्थितियां हैं:-*
*1.हिंदूवादी धारा में आकर्षण:-*
बहुत से गैर-शिक्षित पिछड़े वर्ग के लोग हिंदू पहचान से प्रभावित हैं। धार्मिक आस्था, मंदिर निर्माण, तीर्थ यात्रा, राम कथा आदि में उनकी आस्था होती है। लेकिन वह यह नहीं समझ पा रहे हैं कि इस विचारधारा में उनकी सामाजिक स्थिति सामान्य वर्ग के नीचे ही बनी रहेगी।
*2.अंबेडकरवादी विचारधारा में संभावनाएं:-*
शिक्षित, जागरूक और शोषण का अनुभव करने वाले पिछड़े वर्ग के लोग समझने लगे हैं कि सामाजिक न्याय, आरक्षण और सम्मान की लड़ाई अंबेडकरवाद ही लड़ सकता है। लेकिन वह यह भी महसूस करते हैं कि यह आंदोलन दलित वामपंथी विचारधारा पर आधारित है, और उसमें पिछड़ों की भूमिका स्पष्ट नहीं है।
*3.स्वतंत्र विचारधारा का अभाव:-*
पिछड़ा वर्ग न तो पूरी तरह अंबेडकरवादी है, न ही पूर्ण हिंदूवादी। उसकी सामाजिक अस्मिता का संकट गहराता जा रहा है। यही वजह है कि राजनीतिक रूप से उसके वोट बैंक बिखरा हुआ है और नेतृत्व भ्रमित है।
*राजनीतिक दृष्टिकोण से विश्लेषण:-*
भारत की राजनीति में पिछड़े वर्ग को राजनीतिक रूप से "साइलेंट किंगमेकर" माना जाता है। वह चुनावी समीकरणों को बदलने की ताकत रखता है, लेकिन अपनी विचारधारा के अभाव और नेतृत्व हीनता के कारण दूसरों की राजनीति का ईंधन बनता आ रहा है।
*बीजेपी का "सबका साथ..." नारा:-*
बीजेपी ने OBC नेताओं को आगे कर राजनीतिक चालाकी दिखाई है, लेकिन नीतिगत निर्णयों में आज भी उसका कोई स्थान नहीं है।
*अंबेडकरवादी दलों की सीमा:-*
बहुजन समाज पार्टी सहित अन्य छोटे-छोटे दलों में नेतृत्व तो है, लेकिन व्यापक एकता नहीं है। इन दलों ने पिछड़ों को केवल समर्थन दाता के रूप में देखा, नेतृत्वकर्ता के रूप में नहीं।
*पिछड़ों का स्वतंत्र राजनीतिक दल न होने का अभाव:-*
आजादी के बाद से आज तक पिछड़े वर्ग का अपना स्वतंत्र राजनीतिक दल खड़ा नहीं हो पाया जो भी राजनीतिक दल अस्तित्व में है वह क्षेत्रीय स्तर पर खड़े तो हैं लेकिन वह भी पिछड़ों के अस्तित्व को जातिवादी चश्मे से देखकर नजर अंदाज करते आ रहे हैं। पूरे देश में कोई एक ऐसा राजनीतिक दल नहीं है जो संपूर्ण पिछड़े वर्ग की जातियों को एक साथ जोड़कर चलने का प्रयास करें।
*क्या पिछड़े वर्ग की अपनी अलग विचारधारा होनी चाहिए?*
आज का सबसे बड़ा सवाल है — क्या पिछड़े वर्ग को अपनी स्वतंत्र विचारधारा, राजनीतिक दल, सामाजिक संगठन और दिशा विकसित करनी चाहिए?
हां, निश्चित रूप से!
पिछड़ा वर्ग को न केवल अपनी सामाजिक-राजनीतिक चेतना जगानी चाहिए, बल्कि "पिछड़ा विचार" (Backwardism) जैसी वैचारिक धारा को खड़ा करना चाहिए, जो डॉ. राम मनोहर लोहिया, सरदार वल्लभभाई पटेल, चौधरी चरण सिंह, कर्पूरी ठाकुर और कांशीराम जैसे नेताओं की सोच पर आधारित हो।
सम्पूर्ण पिछड़े वर्ग को एक समता वादी विचारधारा की आवश्यकता है जो न केवल मनुवादी व्यवस्था को चुनौती दे, बल्कि अंबेडकरवाद से संवाद करे, और जाति के आधार पर नहीं, सामाजिक न्याय के आधार पर समाज को नया रास्ता दिखाए।
भारत में विचारधाराओं का टकराव केवल राजनीतिक नहीं है, यह सामाजिक चेतना और अस्तित्व का संघर्ष है। हिंदूवादी और अंबेडकरवादी विचारधाराएं दोनों अपनी-अपनी जगह पर सशक्त हैं, लेकिन यदि पिछड़ा वर्ग अपनी राह नहीं बना पाया, तो वह सदा दूसरों का समर्थक बनकर रह जाएगा — नायक नहीं।
अब समय आ गया है कि पिछड़ा वर्ग जातिगत विचारधारा से ऊपर उठकर सम्पूर्ण बैकवर्ड के सामाजिक, राजनीतिक विकास, बराबरी और हिस्सेदारी के लिए अपनी "*स्वयं की विचारधारा"*, संगठन और एजेंडा स्वयं तय करे। यही उसकी असली मुक्ति की दिशा होगी।
ब्रजलाल लोधी एडवोकेट
सामाजिक चिंतक
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