मंडल बनाम कमंडल : किसने दिलाया हक़, किसने छीना हक़?
भारत की राजनीति का इतिहास गवाह है कि जब-जब पिछड़े, दलित और किसानों को उनका हक़ मिला, तब-तब सत्ता के गलियारों में हलचल मच गई।
बी.पी. सिंह – आरक्षण के मसीहा
1989 में प्रधानमंत्री बी.पी. सिंह ने साहस दिखाया।
उन्होंने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कर पिछड़ों को 27% आरक्षण दिया।
➡ यह कदम करोड़ों वंचितों के जीवन की दिशा बदलने वाला था।
➡ लेकिन ऊंचे तबके को यह मंज़ूर नहीं हुआ – विरोध, आंदोलन और आत्मदाह की आग फैली।
और याद रखिए – बीजेपी ने मंडल को कमजोर करने के लिए “राम मंदिर” का कमंडल उठा लिया।
आखिरकार बी.पी. सिंह की सरकार गिर गई, लेकिन उन्होंने इतिहास में नाम लिखवा दिया –
“पिछड़ों का मसीहा।”
अर्जुन सिंह – शिक्षा में बराबरी की लड़ाई
2006 में मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह ने उच्च शिक्षा में पिछड़ों को आरक्षण देकर नई इबारत लिखी।
➡ लाखों गरीब घरों के बच्चों को डॉक्टर-इंजीनियर बनने का मौका मिला।
➡ विरोधियों ने वही पुरानी रट लगाई – “योग्यता घटेगी।”
लेकिन सच यह था कि आरक्षण ने अवसर की बराबरी दी।
मुलायम सिंह बनाम कल्याण सिंह
मुलायम सिंह यादव – मंडल राजनीति के सेनानी, पिछड़ों और किसानों की आवाज।
कल्याण सिंह – कमंडल राजनीति के प्रतीक, राम मंदिर आंदोलन के नेता।
मुलायम सिंह ने पिछड़ों को हक़ दिलाने का काम किया,
जबकि कल्याण सिंह ने वही पिछड़ा समाज कमंडल की राजनीति में झोंक दिया।
इतिहास गवाह है –
➡ कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने, लेकिन उनके फैसलों से पिछड़ा समाज सौ साल पीछे धकेल दिया गया।
➡ और जब बीजेपी को लगा कि उनका उपयोग खत्म हो गया, तो कल्याण सिंह को अपमानित कर पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया।
🔹 असली ताक़त – सामाजिक एकता
आज सबसे बड़ा सवाल है – क्या पिछड़ा समाज फिर से बटा रहेगा या एकजुट होगा?
यदि यादव, लोधी, कुर्मी, कुशवाहा, जाट और गुर्जर –
👉 आपसी भेदभाव छोड़कर
👉 रोटी-बेटी का संबंध जोड़कर
👉 एक साझा मंच पर आएं
तो सोचिए, यह ताक़त कैसी होगी?
➡ यह समाज देश की राजनीति की दिशा बदल देगा।
➡ कोई ताक़त इन्हें हक़ और सम्मान से वंचित नहीं कर पाएगी।
✅ निष्कर्ष
बी.पी. सिंह – हक़ दिलाने वाले नायक।
अर्जुन सिंह – शिक्षा में बराबरी के पुरोधा।
मुलायम सिंह यादव – मंडल राजनीति के प्रहरी।
कल्याण सिंह – निजी स्वार्थ के लिए पिछड़ों को कमजोर करने वाले।
👉 अब फैसला पिछड़े समाज को करना है – मंडल की राह चुननी है या कमंडल के जाल में फंसना है।
लेखक - ब्रजलाल लोधी एडवोकेट सामाजिक चिंतक
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