*:सामाजिक परिवर्तन की नई सोच:*
*अब समय आ गया है — 'पिछड़ा'- 'दलित'- 'सूद्र'- 'अनुसूचित जाति'- 'अनुसूचित जनजाति' और आदिवासी जैसे असम्मान जनक शब्दों को सम्मान जनक शब्दों में परिवर्तित करने का :-*
*हमारे सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विमर्श में लम्बे समय से तीन प्रमुख शब्द— "अगड़ा-पिछड़ा और दलित"— लगातार प्रयोग में हैं। इन शब्दों ने भारतीय समाज की सामाजिक विषमता और ऐतिहासिक असमानता को इंगित किया है। लेकिन अब समय की धारा बदल चुकी है। भारतीय समाज 21वीं सदी में प्रवेश कर चुका है। वर्तमान में समाज सामाजिक संरचना, चेतना और सशक्तिकरण की स्थिति पूरी तरह से भिन्न हो चुकी है।*
*"समाज बदल चुका है, पर शब्द नहीं बदले"।*
*यह सामाजिक असमानता समाज को कचोट रही है।*
*"पिछड़ा"- "दलित" और "सूद्र" जैसे शब्द उस समय गढ़े गए जब इन वर्गो की सामाजिक स्थिति बेहद पिछड़ी हुई थी, उनके पास न शिक्षा थी, न संसाधन, न अधिकार और न ही राजनीतिक भागीदारी। लेकिन आज यह वर्ग न केवल शिक्षित हुआ है बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र में अग्रणी भूमिका में आ रहा है। लोग नौकरियों में हैं, प्रशासनिक सेवाओं में हैं, जनप्रतिनिधि बने हैं, और अब समाज को नेतृत्व देने की स्थिति में आ चुके हैं। तब-*
*"अब यह शब्द अपमान जनक लगने लगे हैं"।*
*"पिछड़ा"- "दलित" और "सूद्र" शब्द अब इन समाजों को एक हीनता का बोध कराता हैं, जो आज सक्षम है, जागरूक हैं और प्रगतिशील हैं वह कोई भी व्यक्ति आज स्वयं को पिछड़ा, दलित और सूद्र कहलाना पसंद नहीं करता। कोई भी स्वाभिमानी वर्ग अब पिछड़ा - दलित और सूद्र शब्द को आत्मसात नहीं कर पा रहा है। यह शब्द अब इन समाजों के सामाजिक, राजनीतिक ,सांस्कृतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, नैतिक और आर्थिक विकास और आत्म-सम्मान के खिलाफ खड़े दिखाई पड़ते हैं।*
*वर्तमान में प्रयुक्त अन्य शब्द भी सवालों के घेरे में हैं- जैसे-*
*"अनुसूचित जाति", "अनुसूचित जनजाति", "आदिवासी" आदि शब्द संविधानिक दृष्टि से कभी जरूरी थे तब प्रयोग में लाए गए थे उस समय जरूरी हो सकते हैं, लेकिन वर्तमान में परिस्थितियों बदली है। बदली परिस्थितियों में कई बार संविधान संशोधन भी हो चुके हैं। इसलिए इन शब्दों को भी संविधान में संशोधित करने की आवश्यकता महसूस हो रही है। यह शब्द अब सामाजिक स्तर पर सम्मान जनक प्रतीत नहीं होते। यह शब्द सरकारी प्रयोग में तो आ रहे हैं लेकिन अब इन शब्दों का भी आज के आधुनिक और विकसित 21 वीं सदी के समाज में प्रयोग में लाना समझ से परे है। समय- के साथ अब इन असम्मानजनक शब्दों पर भी समाज और सरकार को अपना ध्यान आकर्षित करना चाहिए। आज़ वर्तमान में आम सामाजिक वार्ता में अब इनकी जगह सम्मानजनक, समावेशी और प्रेरणादायक शब्दों का प्रयोग किया जाना चाहिए।*
*वर्तमान में मेरी स्वयं की सामाजिक सोच पर आधारित संभावित नए शब्द जो इन प्रचलित शब्दों की जगह पर प्रयोग में लाए जा सकते हैं :-*
*जैसे--*
*"सूद्र" शब्द की जगह "श्रमशील वर्ग"*,-
*"पिछड़ा वर्ग" शब्द की जगह "नवोदय वर्ग"*,-
*"दलित वर्ग /अनुसूचित जाति" शब्द की जगह "समता वर्ग"*
*"आदिवासी/ अनुसूचित जन जाति वर्ग" की जगह " जन गौरव वर्ग" आदि ऐसे वैकल्पिक नाम (शब्द) हो सकते हैं जो समाज में सकारात्मकता और सम्मान का बोध कराएं।*
*समय- की मांग है कि वर्तमान में सभी वर्गों को एक समान दृष्टि से देखा जाए:-*
*-- सभी वर्गो की पहचान उनके कर्म, शिक्षा, जागरूकता और मानवता से हो— न कि उनके जन्म से तय की गई जातीय श्रेणियों से।*
*--मीडिया, शिक्षा और राजनीति में नए शब्दों की शुरुआत हो।*
*--सोशल मीडिया, शैक्षणिक संस्थानों और राजनीतिक मंचों से यह नए गढ़े गए शब्दों का प्रयोग आरंभ करके समाज को नई सामाजिक पहचान दिलाई जाए।*
*अब समय आ गया है कि हम उन शब्दों से स्वयं को मुक्त करें जो हमें अब तक मानसिक बंधन और सामाजिक गुलामी में डालते आ रहे हैं। 'पिछड़ा'- 'दलित'-'सूद्र' -'अनुसूचित जाति'-'अनुसूचित जनजाति' जैसे शब्दों को बदलकर हमें नए सम्मानजनक शब्दों को अपनाना चाहिए जो समावेश, समानता और आत्मगौरव का संचार करें।*
*यह केवल भाषा का बदलाव नहीं है, यह मानसिकता का, सोच का और आत्म-सम्मान की स्थापना का आंदोलन है।*
*यदि आप भी हमारे इस विचार से सहमत हैं, तो इस लेख को अधिक से अधिक साझा करें। आओ मिलकर एक नई सामाजिक भाषा का निर्माण करें। — जो सम्मान, समरसता और समता की प्रेरणा बने।*
*ब्रजलाल लोधी* *एडवोकेट. सामाजिक चिंतक. लखनऊ*
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