रावण: मानवतावादी और प्रकांड विद्वान :-
रावण एक प्रकांड विद्वान, धार्मिक और मानवतावादी व्यक्ति था। उसकी विद्वत्ता में आयुर्वेद, वेद, संगीत और राजनीति का अद्भुत संगम दिखाई देता था।
वह अपने जीवन में अनुशासनप्रिय था। सुबह उठकर पूजा-पाठ करना उसकी दिनचर्या का हिस्सा था, और धर्म उसके लिए केवल शब्दों का प्रतीक नहीं बल्कि जीवन में नैतिकता और अध्यात्म का मार्गदर्शन था।
रावण समाज और संस्कृति के प्रति संवेदनशील था। वह अपने राज्य और प्रजा के कल्याण के लिए निरंतर प्रयासरत रहता और न्यायप्रिय निर्णय लेने में विश्वास रखता था।
इस दृष्टि से रावण का व्यक्तित्व विविध, ज्ञानवान और मानवतावादी था — केवल शक्ति या युद्ध का प्रतीक नहीं। उसकी विद्वत्ता और धर्मप्रिय जीवन हमें यह सिखाता है कि इतिहास में किसी को सिर्फ अच्छे-बुरे के द्वंद्व में बांधकर देखना पर्याप्त नहीं है।
विजयादशमी: क्या हम इतिहास और मानवता दोनों का सम्मान कर रहे हैं?
विजयादशमी (दशहरा) को भारत में ‘अच्छाई की बुराई पर विजय’ के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है। आमतौर पर इसे भगवान राम की रावण पर विजय से जोड़ा जाता है और इस दिन रावण, कुंभकर्ण और मेघनाथ के पुतलों का दहन बड़े सार्वजनिक उत्सव के रूप में किया जाता है। यह प्रथा हमारी सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान का हिस्सा है।
लेकिन जब इसे इतिहास, सामाजिक तर्क और मानवता के दृष्टिकोण से देखें, तो कई सवाल उठते हैं:-
1. क्या रावण-दहन की यह परंपरा हर जगह और हर समुदाय में समान अर्थ रखती है?
2. क्या किसी विद्वान या इतिहासिक व्यक्ति की प्रतिमा को जलाना लोकतांत्रिक और संवैधानिक रूप से उचित है?
3. क्या हम इस परंपरा को आधुनिक समय के अनुसार मानवतावादी दृष्टि से नया अर्थ दे सकते हैं?
रावण-दहन: सार्वभौमिक सत्य नहीं :-
देश के कई हिस्सों में रावण को केवल दुष्ट नहीं माना जाता। कई जनजातीय और प्रादेशिक समुदायों में रावण को विद्वान, न्यायप्रिय या लोक संरक्षक के रूप में देखा जाता है। वहां रावण-दहन के बजाय उसे सम्मान देने की परंपरा है।
इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि रामायण की व्याख्या एक जैसी नहीं है।
‘रावण दहन = बुराई पर विजय’ की अवधारणा एक सार्वभौमिक सत्य नहीं है, बल्कि यह स्थानीय परंपरा और समाज की सांस्कृतिक समझ पर निर्भर करती है।
क्या किसी की प्रतिमा जलाना संविधान के अनुरूप है?
भारतीय संविधान में धर्म की स्वतंत्रता, समानता और व्यक्तिगत गरिमा के अधिकार निहित हैं (अनुच्छेद 14, 21, 25)। न्यायालयों ने कई बार स्पष्ट किया है कि किसी व्यक्ति या समूह की गरिमा पर चोट पहुंचाने वाली कार्रवाई संवैधानिक रूप से रोकी जा सकती है।
यदि रावण-दहन के दौरान किसी समुदाय की भावनाओं या किसी विद्वान् व्यक्ति के सम्मान का उल्लंघन होता है, तो यह उनके मौलिक अधिकारों का हनन माना जा सकता है।
इसके अलावा, सार्वजनिक सुरक्षा, अग्नि-सुरक्षा और प्रशासनिक अनुमति जैसे पहलू भी जरूरी हैं।
अतः धार्मिक अभिव्यक्ति का अधिकार हमेशा ‘सार्वजनिक व्यवस्था, मानव गरिमा और कानून’ के भीतर रहकर ही प्रयोग होना चाहिए।
विजय का असली अर्थ: श्रेष्ठता नहीं, न्याय और मानवता होना चाहिए:-
विजय का असली संदेश हिंसा या अपमान से नहीं, बल्कि न्याय, नैतिकता और सहिष्णुता की जीत से जुड़ा होना चाहिए।
रावण-दहन के बजाय इसे शिक्षा, नैतिक संदेश और सामाजिक चेतना फैलाने का अवसर बनाया जा सकता है।
किसी व्यक्ति या विद्वान की प्रतिमा जलाने की बजाय, प्रतीकात्मक रूप से अहंकार, बुरी आदतें या नकारात्मक प्रवृत्तियां जलाना अधिक सार्थक और समाजोपयोगी रहेगा।
संवैधानिक मूल्यों और सामाजिक सद्भाव के अनुरूप परंपराओं को नया अर्थ देना ही समृद्ध और जिम्मेदार संस्कृति का परिचायक है।
निष्कर्ष :-
विजयादशमी का संदेश सत्य और धर्म की विजय है। लेकिन इसे केवल हिंसा या किसी के अपमान के रूप में मनाना उचित नहीं।
समाज और संस्कृति की जिम्मेदारी है कि परंपराओं को मानवतावादी, संवैधानिक और समावेशी दृष्टिकोण से परिभाषित किया जाए। रावण-दहन को पुनर्विचार का अवसर बनाकर हम न्याय, सहिष्णुता और मानवता की विजय को ही वास्तविक विजय के रूप में मान सकते हैं।
चिंतक -- ब्रजलाल लोधी एडवोकेट सामाजिक चिंतक
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