अधूरी हवेली का रहस्य (भाग – 4 : अंतिम)
अवनि के सामने दो रास्ते थे—
एक तरफ़ पिछले जन्म का अधूरा प्यार, दूसरी तरफ़ इस जन्म की ज़िंदगी।
उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे।
आरव ने उसकी ओर देखते हुए कहा —
"अन्विता, अब फ़ैसला तुम्हारे हाथ में है।"
अवनि ने गहरी साँस ली।
"आरव… मैं तुम्हें कभी खोना नहीं चाहती थी। लेकिन शायद इसी जन्म में लौटकर मुझे तुम्हें मुक्त करना था। तुम्हारी आत्मा को आज़ादी चाहिए, मेरा साथ नहीं।"
आरव की आँखों में आँसू चमक उठे।
"तो तुम मुझे छोड़ दोगी?"
अवनि मुस्कुराई —
"नहीं… मैं तुम्हें विदा दूँगी। तुम्हारा संगीत पूरा हो चुका है। अब तुम्हें चैन से जाना चाहिए।"
इतना कहते ही अवनि ने सरोद की आख़िरी धुन बजाई।
पूरा राग पूरा होते ही हवेली के टूटे दरवाज़े, झरोखे और दीवारें सुनहरी रोशनी से जगमगा उठीं।
आरव की आकृति धीरे-धीरे धुंध में बदलने लगी।
उसने अवनि का हाथ आख़िरी बार थामते हुए कहा —
"धन्यवाद, अन्विता… नहीं, अवनि। तुमने मुझे मुक्ति दी। अब यह हवेली श्रापमुक्त है।"
अगले ही पल हवेली से निकलती रोशनी आसमान में समा गई।
आरव ग़ायब हो चुका था।
अब हवेली शांत थी… पहली बार सदियों के बाद।
अवनि बाहर आई तो देखा—गाँव वाले हवेली के बाहर खड़े थे। सबकी आँखों में आश्चर्य और राहत थी।
दादी ने दौड़कर उसे गले लगाया और बोलीं —
"बिटिया, तूने वो कर दिखाया जो कोई नहीं कर सका। आज हवेली का डर ख़त्म हो गया।"
अवनि ने आसमान की ओर देखा।
उसके कानों में सरोद की धुन अब नहीं गूँज रही थी… बस हल्की हवा में शांति थी।
उसके दिल में एक संतोष था —
“प्यार अधूरा नहीं रहा… मैंने आरव को मुक्ति दे दी। और अब मैं अपने जीवन की नयी कहानी लिखूँगी।”
समापन :-
लखनऊ की यह हवेली अब खंडहर नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक धरोहर बन गई।
गाँव वाले वहाँ जाने लगे, और हवेली का डर हमेशा के लिए मिट गया।
और अवनि… उसने तय कर लिया कि वह अपनी कहानी को किताब की शक्ल देगी, ताकि दुनिया जाने कि सच्चा प्यार अधूरा रह सकता है, लेकिन उसकी आत्मा कभी नहीं मरती।
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